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Category: हिन्दी

ये दूरी क्यूँ है ?


[Painting by Donald Zolan]

*

दिलों के दरमियाँ ये दूरी क्यूँ है ?
तुम पास हो, फिर ये मजबूरी क्यूँ है ?

बडी जद्दोजहद के बाद घर आये हो,
अब आये हो, तो जाना जरूरी क्यूँ है ?

ये रात का नशा नहीं तो ओर क्या है,
हर सुबह के माथे पे सिंदूरी क्यूँ है ?

वो रुकना चाहे भी तो रुक नहीं सकता,
फिर ये वक्त की अकड, ये मगरूरी क्यूँ है ?

गर लब्जों में बयाँ हो, वो बात ही क्या,
पूछो निगाहों से बातें अधूरी क्यूँ है ?

क्यूँ भागते है साँसो के हिरन, ‘चातक’,
तेरी खुश्बु में बसी मेरी कस्तूरी क्यूँ है ?

– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’

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नाकामी के जेवर से

ये पूछो क्या-क्या नहीं करते धनी आदमी फेवर से,
बागानों को रिश्वत देकर फूल ऊगाते फ्लेवर से ।

खुश्बु की माफिक चलकर बातें खुद दफ्तर नहीं आती,
गैरहाजरी चिल्लाती है ओफिस के स्क्रीन-सेवर से ।

छोटी-छोटी बातों में तुम क्यूँ हथियार उठाते हो,
बात सुलझ जाती है अक्सर सिर्फ दिखायें तेवर से ।

रामभरोसा क्या होता है, सीता ये ना जान सकी,
किस मूँह से फिर बात करें रक्षा की अपने देवर से ।

कम-से-कम दिन में इक बार हसाँये अपनी बातों से,
यही अपेक्षा रहती है हर लडकी को अपने वर से ।

कोशिश तो हम भी करतें हैं, ‘चातक’, की कुछ बन जायें,
शौक नहीं हमको यूँ सजना नाकामी के जेवर से ।

– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’

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सयाने हो गये


मीतिक्षा.कोम के सभी वाचकों को दिपावली तथा नूतन वर्ष की ढेर सारी शुभकामनायें । आपके जीवन में खुशियों का ईन्द्रधनुष हमेशा बना रहें ।
*
गाँव के किस्से पुराने हो गये,
दोस्त बचपन के सयाने हो गये ।

माँ का पालव ओढने के ख्याल से,
मेरे सब सपने सुहाने हो गये ।

इश्क करने की मिली हमको सजा,
जख्म सब मेरे दिवाने हो गये ।

जिन्दगीने हाथ जो थामा नहीं,
तूट भूट्टा, दाने-दाने हो गये ।

वक्त फिर कटता रहा कुछ इस तरह,
हर पलक पर शामियाने हो गये ।

साँस की जारी रखी हमने भी जंग,
क्या हुआ, हम लहलुहाने हो गये ।

अब तो ‘चातक’ मौत से है पूछना,
क्यूँ मियाँ, आते जमाने हो गये ।

– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’

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याद आती हैं हमे

जुल्फ से हल्की-सी बारिश याद आती हैं हमें,
भूल जाने की सिफारीश याद आती है हमें,
चाहकर भी जो मुकम्मिल हम कभी ना कर सकें,
बीते लम्हों की गुजारिश याद आती हैं हमे
* * *
आज भी कोई सदा है, जो बुलाती हैं हमें
गीत में या फिर गजल में गुनगुनाती हैं हमें

वक्त बदला पर उसीकी आदतें बदली नहीं,
तब जलाती थी हमे, अब भी जलाती है हमें

बात उसकी मान लेते तो सँवर जाते, मगर,
जिन्दगी सबकुछ कहाँ जलदी सिखाती हैं हमे

वो हमारे बीच थी तो आँख में आँसू न थे,
आज उसकी याद भी महिनों रुलाती है हमें

मुँदकर आँखें अगर हम सो सकें तो ठीक है,
मौत आकर निंद में गहरी सुलाती है हमें

हम गजल का हाथ थामे इसलिये बैठे रहें
लिख नहीं पाते कभी तो वो लिखाती हैं हमें

कोई तो ‘चातक’ वजह होगी हमारे नाम की,
वरना ये कदमों की आहट क्यूँ जगाती है हमें ?

– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’

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उम्मीद क्यूँ रक्खे ?


[Painting by Donald Zolan]

अगर तुम साथ हो तो ख्वाब की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
जवाँ हो रात तो फिर भोर की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?

अगर तुम ये कहो की हम तुम्हें ना भूल पायेंगे,
खुदा के हाथ से फिर भूल की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?

समजदारी पे पर्दा छा गया जिनकी अदाओं से,
वो आये पास तो हम होश की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?

हमें गुमराह करके चल दिये वो अपनी मंझिल पर,
हुए खुद लापता तो खोज की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?

दिये जो घाव अपनोंने, जमाना भर नहीं सकता,
कोई मरहम के हाथों चोट की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?

फँसाना है अगर दुनिया, बुरे हैं लोग दुनिया के,
तो फिर हम कब्र में भी चैन की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?

जिन्हीं के घाव से छलनी हुई यह जिन्दगी ‘चातक’,
उन्हीं से एक कतरा खून की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?

– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’

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कमाल रखते हैं

किसी भी हाल में चहेरे को हम खुशहाल रखते हैं,
तमाचा मारकर भी गाल अक्सर लाल रखते हैं ।

पसीने को हमारे गर कोई आँसू समज ना लें,
बहुत कुछ सोचकर हम हाथ में रूमाल रखते हैं ।

बुरे हालात हैं, अच्छी खबर की ना हमें उम्मीद,
कमी महेसूस ना हो खून की, गुलाल रखतें हैं ।

समय के पास जिनके कोई भी उत्तर नहीं एसे,
हम अपनी आँख में जिन्दा कई सवाल रखतें हैं ।

हर एक लम्हें को बेचैनी है हमको आजमाने की,
पराजित हो न जायें, आँसुओं की ढाल रखते हैं ।

गज़ल तो एक ही पहलू हमारी जिंदगानी का,
बस इतना जान लो, ‘चातक’ कई कमाल रखते हैं ।

– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’

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