[Painting by Donald Zolan]
अगर तुम साथ हो तो ख्वाब की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
जवाँ हो रात तो फिर भोर की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
अगर तुम ये कहो की हम तुम्हें ना भूल पायेंगे,
खुदा के हाथ से फिर भूल की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
समजदारी पे पर्दा छा गया जिनकी अदाओं से,
वो आये पास तो हम होश की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
हमें गुमराह करके चल दिये वो अपनी मंझिल पर,
हुए खुद लापता तो खोज की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
दिये जो घाव अपनोंने, जमाना भर नहीं सकता,
कोई मरहम के हाथों चोट की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
फँसाना है अगर दुनिया, बुरे हैं लोग दुनिया के,
तो फिर हम कब्र में भी चैन की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
जिन्हीं के घाव से छलनी हुई यह जिन्दगी ‘चातक’,
उन्हीं से एक कतरा खून की उम्मीद क्यूँ रक्खे ?
– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’
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