ये पूछो क्या-क्या नहीं करते धनी आदमी फेवर से,
बागानों को रिश्वत देकर फूल ऊगाते फ्लेवर से ।
खुश्बु की माफिक चलकर बातें खुद दफ्तर नहीं आती,
गैरहाजरी चिल्लाती है ओफिस के स्क्रीन-सेवर से ।
छोटी-छोटी बातों में तुम क्यूँ हथियार उठाते हो,
बात सुलझ जाती है अक्सर सिर्फ दिखायें तेवर से ।
रामभरोसा क्या होता है, सीता ये ना जान सकी,
किस मूँह से फिर बात करें रक्षा की अपने देवर से ।
कम-से-कम दिन में इक बार हसाँये अपनी बातों से,
यही अपेक्षा रहती है हर लडकी को अपने वर से ।
कोशिश तो हम भी करतें हैं, ‘चातक’, की कुछ बन जायें,
शौक नहीं हमको यूँ सजना नाकामी के जेवर से ।
– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’
अशोकभाई, आपकी बात सही है । एन मौके पर मैने मत्ला के उला मिसरे का काफिया ‘पावर’ से बदलकर ‘फेवर’ कर दिया और ये देखना भूल गया की इससे अन्य काफिये की चुस्तता को नुकसान होगा । फिलहाल मैंने निम्न लिखित दो शेर निलंबित कर दिये हैं ।
महेनत करके रिश्तों में उन्होंने बात बनायी थी,
गवाँह बनकर कूद पडी तब चीजें खुल्ले ड्रोवर से ।
खुब सँभलकर चलना पडता हैं सपनों को जीवन में,
आँख खोलकर कुचल न दे कोई उनकी हस्ती रोवर से ।
आपके प्रतिभाव के लिये तहे दिल से शुक्रिया ।
अच्छी गज़ल.. मगर आप ड्रोवर एवं रोवर काफियाका इस्तेमाल नहि कर सकते.. जब मत्लामें फ्लेवर और फेवर जैसे काफियोंका इस्तेमाल किया हो…
ये पूछो क्या-क्या नहीं करते धनी आदमी फेवर से,
बागानों को रिश्वत देकर फूल ऊगाते फ्लेवर से ।
સૂંદર ગઝલનો બહુ સુંદર મત્લા
रामभरोसा क्या होता है, सीता ये ना जान सकी,
किस मूंह से फिर बात करें रक्षा की अपने देवर से ।
बहुत अच्छी गझल कही अापने जनाब । अभिनन्दन ।