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नाकामी के जेवर से

ये पूछो क्या-क्या नहीं करते धनी आदमी फेवर से,
बागानों को रिश्वत देकर फूल ऊगाते फ्लेवर से ।

खुश्बु की माफिक चलकर बातें खुद दफ्तर नहीं आती,
गैरहाजरी चिल्लाती है ओफिस के स्क्रीन-सेवर से ।

छोटी-छोटी बातों में तुम क्यूँ हथियार उठाते हो,
बात सुलझ जाती है अक्सर सिर्फ दिखायें तेवर से ।

रामभरोसा क्या होता है, सीता ये ना जान सकी,
किस मूँह से फिर बात करें रक्षा की अपने देवर से ।

कम-से-कम दिन में इक बार हसाँये अपनी बातों से,
यही अपेक्षा रहती है हर लडकी को अपने वर से ।

कोशिश तो हम भी करतें हैं, ‘चातक’, की कुछ बन जायें,
शौक नहीं हमको यूँ सजना नाकामी के जेवर से ।

– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’

4 Comments

  1. Daxesh Contractor
    Daxesh Contractor June 9, 2014

    अशोकभाई, आपकी बात सही है । एन मौके पर मैने मत्ला के उला मिसरे का काफिया ‘पावर’ से बदलकर ‘फेवर’ कर दिया और ये देखना भूल गया की इससे अन्य काफिये की चुस्तता को नुकसान होगा । फिलहाल मैंने निम्न लिखित दो शेर निलंबित कर दिये हैं ।

    महेनत करके रिश्तों में उन्होंने बात बनायी थी,
    गवाँह बनकर कूद पडी तब चीजें खुल्ले ड्रोवर से ।

    खुब सँभलकर चलना पडता हैं सपनों को जीवन में,
    आँख खोलकर कुचल न दे कोई उनकी हस्ती रोवर से ।

    आपके प्रतिभाव के लिये तहे दिल से शुक्रिया ।

  2. અશોક જાની 'આનંદ'
    અશોક જાની 'આનંદ' June 6, 2014

    अच्छी गज़ल.. मगर आप ड्रोवर एवं रोवर काफियाका इस्तेमाल नहि कर सकते.. जब मत्लामें फ्लेवर और फेवर जैसे काफियोंका इस्तेमाल किया हो…

  3. Pragnaju
    Pragnaju June 5, 2014

    ये पूछो क्या-क्या नहीं करते धनी आदमी फेवर से,
    बागानों को रिश्वत देकर फूल ऊगाते फ्लेवर से ।
    સૂંદર ગઝલનો બહુ સુંદર મત્લા

  4. Kishore Modi
    Kishore Modi June 5, 2014

    रामभरोसा क्या होता है, सीता ये ना जान सकी,
    किस मूंह से फिर बात करें रक्षा की अपने देवर से ।
    बहुत अच्छी गझल कही अापने जनाब । अभिनन्दन ।

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