[Painting by Amita Bhakta]
वक्त भी चलते हुए गभरा रहा है आजकल,
कौन उसके पैर को फिसला रहा है आजकल ?
रास्ते आसान है पर मंझिले मिलती नहीं,
हर कोई पत्थर से क्यूँ टकरा रहा है आजकल ?
न्याय का दामन पकडकर चल रही है छूरीयाँ,
सत्य अपने आपमें धुँधला रहा है आजकल
पतझडों ने नींव रिश्तों की हिला दी इस तरह,
पैड खुद पत्तो से यूँ कतरा रहा है आजकल
आप के चहेरे की खुश्बु को सलामत राखिये,
एक भँवरा आप पर मंडरा रहा है आजकल
वक्त की नादानियत या बेकरारी प्यार की,
कौन ‘चातक’ मोम को पिघला रहा है आजकल ?
– © दक्षेश कोन्ट्राकटर ‘चातक’
वाह..वाह..आफ्रीन ~ दक्षेशभाइ
आप के चहेरे की खुश्बु को सलामत रखीये
एक भँवरा आप पर मंडरा रहा है आजकल
न्याय का दामन पकडकर चल रही है छूरीयाँ,
सत्य अपने आपमें धुँधला रहा है आजकल
पतझडों ने नींव रिश्तों की हिला दी इस तरह,
पैड खुद पत्तो से यूँ कतरा रहा है आजकल
બહોત અચ્છે દક્ષેશભાઈ લોગ સત્ય કો કુચલને સે ભી શરમાતે નહી હૈ..
આપકે અશઆર પ્રેરીત હૈ..
सत्य अपने आपमें धुँधला रहा है आजकल…
बहोत खूब !
आजकल की बातें ठीक तरह कही गई है हर शे’र में !
हमारे अभिनंदन स्वीकरीए साहब !
पतझडों ने नींव रिश्तों की हिला दी इस तरह,
पैड खुद पत्तो से यूँ कतरा रहा है आजकल
बहोत खूब, बड़ी अच्छी ग़ज़ल कही है, आपने…!!
અચ્છી ગઝલ હુઈ હૈ દક્ષેશભાઈ…
આપકી કલમ હર બાર નઈ તરહ સે નીખરતી હૈ….
पतझडों ने नींव रिश्तों की हिला दी इस तरह,
पैड खुद पत्तो से यूँ कतरा रहा है आजकल
ક્યા બાત હૈ આજકલ..??? દક્ષેશભાઈ બહોત ખુબ..
વાહ, વાહ, શું સુંદર રચના !!!